धर्म एवं दर्शन >> यजुर्वेद युवाओं के लिए यजुर्वेद युवाओं के लिएप्रवेश सक्सेना
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यह पुस्तक उन सभी के लिए, जो ‘मन से युवा हैं’ तथा प्राचीन ज्ञान को आधुनिक सन्दर्भों में समझना चाहते हैं
‘वेद : युवाओं के लिए’ ग्रन्थमाला की तीसरी पुस्तक ‘यजुर्वेद : युवाओं के लिए’ प्रस्तुत है। इसमें यजुर्वेद के 112 मन्त्रों को ऋग्वेद की तरह दम शीर्षकों के अन्तर्गत
समाहित किया गया है। ज्ञान-शिक्षा, स्वास्थ्य-योग, मानसिक स्वास्थ्य,
धर्म-नैतिकता, अर्थ-धनैश्चर्य घर-परिवार, समाज, राष्ट्र, पर्यावरण तथा
वेश्विकता जैसे विषयों पर इन मन्त्रों के माध्यम से चर्चा हुई है।
यजुर्वेद मुख्यतः कर्म से सम्बद्ध है। यह कर्म यज्ञ है, जिसे
यहाँ श्रेष्ठतम बताया गया है। पारम्परिक दृष्टि से
‘यज्ञ’ का सीमित अर्थ होता है–अग्नि में
आहुति देना। परन्तु ‘यज्ञ’ का व्यापक अर्थ भी है,
जहाँ समर्पण भाव मुख्य रहता है। अतः समाजोपयोगी सभी कर्म यज्ञ के अन्तर्गत
आ जाते हैं।
इन मन्त्रों में ज्ञान, दीर्घायु व धन-सम्पत्ति तथा सुरक्षादि पाने के लिए प्रार्थनाएँ हैं। क्रीड़ा, योगादि शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। धर्म कर्तव्य तथा नैतिकता से जुड़ा है। यह लोभ प्रवृत्ति ही है, जिससे संसार में उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिलता है, इसी के कारण एक ओर भय व आतंक पनपते हैं तो दूसरी ओर पर्यावरण-प्रदूषण होता है। आधुनिक युग में यज्ञपरक जीवन परोपकार भावना से युक्त मानव-जनों की अपेक्षा है। शान्ति’ के लिए किया जाने वाला ‘शान्तिपाठ’ इसी वेद की देन है।
इन मन्त्रों में ज्ञान, दीर्घायु व धन-सम्पत्ति तथा सुरक्षादि पाने के लिए प्रार्थनाएँ हैं। क्रीड़ा, योगादि शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। धर्म कर्तव्य तथा नैतिकता से जुड़ा है। यह लोभ प्रवृत्ति ही है, जिससे संसार में उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिलता है, इसी के कारण एक ओर भय व आतंक पनपते हैं तो दूसरी ओर पर्यावरण-प्रदूषण होता है। आधुनिक युग में यज्ञपरक जीवन परोपकार भावना से युक्त मानव-जनों की अपेक्षा है। शान्ति’ के लिए किया जाने वाला ‘शान्तिपाठ’ इसी वेद की देन है।
यजुर्वेद
यजुर्वेद को मनुस्मृति में ‘वायु’ से सम्बद्ध बताया
गया है। ऋग्वेद अग्नि तथा सामवेद सूर्य से सम्बद्घ है।
‘वायु’ गति का प्रतीक है। वायु यजुर्वेद की गति या
कर्म सम्बन्धी विशेषता का परिचायक है क्योंकि गति और कर्म एक-दूसरे के
पर्याप्त ही हैं। जहाँ गति होती है वहाँ कर्मशीलता होती है। अकर्मण्यता
जड़ता का प्रतीक है, ठहराव का प्रतीक है। यजुर्वेद में कर्मशीलता की
प्रधानता है, कर्म की मुख्यता है। ‘कर्म’ में ही यज्ञ
करना भी निहित है। यज्ञ को यह वेद श्रेष्ठतम कर्म मानता है। यजुर्वेद
‘अध्वर्यु’ नामक पुरोहित के लिए है। जैसे ऋग्वेद में
‘होता’ देवों का आहवान करता, यज्ञ का निर्देशन करता
था उसी प्रकार ‘अध्वर्यु’ यज्ञ का संपादन और संचालन
करता था। इस कार्य में गति और वेग दोनों अपेक्षित हैं। यह गति
कर्मेन्द्रियों-ज्ञानेन्द्रियों की गति है तथा मन का वेग भी है। विचारों
का वेग तथा बुद्धि का प्रवाह भी।
यजुर्वेद का अर्थ है ‘यजुषों का वेद’–यजुष् शब्द के निम्न अर्थ हैं–वे मन्त्र जिनसे यज्ञयागादि किए जाते हैं। अनियताक्षरों से समाप्त होने वाले वाक्य को यजुः कहते हैं। गद्यात्मक मन्त्रों का नाम ‘यजुः’ होता है। जहाँ तक शुक्ल-यजुर्वेद का प्रश्न है वहाँ छन्दों का निर्देश सिद्ध करता है कि यह वेद छन्दात्मक है। कृष्णयजुर्वेद अवश्य ही गद्यात्मक है।
यजुर्वेद की शाखाएँ–महाभाष्यकार पतञ्जलि ने यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाओं का उल्लेख किया है। इनमें से आज मात्र 6 शाखाएँ उपलब्ध हैं। यज़ुर्वेद के दो मुख्य भेद हैं–शुक्लयजुर्वेद तथा कृष्णयजुर्वेद। शुक्लयजुर्वेद की दो शाखाएँ माध्यान्दिन तथा काण्व हैं और कृष्णयजुर्वेद की चार शाखाएँ हैं–तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक तथा कपिष्ठलकठ।
शुक्लयजुर्वेद तथा कृष्णयजुर्वेद में भेद–शुक्ल और कृष्ण का भेद इन दोनों के स्वरूप पर आधारित है। इस वेद के दो सम्प्रदाय हैं–ब्रह्म और आदित्य। ब्रह्मसम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व कृष्णयजुर्वेद करता है तथा आदित्यसम्प्रदाय का शुक्लयजुर्वेद। इन दोनों का भेद इनकी विषयवस्तु से होता है। शुक्ल का अर्थ होता है श्वेत या शुद्ध। इसका शुक्लत्व इस बात में है कि इसमें केवल मन्त्रों का संग्रह है। दूसरी ओर, कृष्ण का अर्थ होता है काला या ‘अशुद्ध’। यहाँ ‘अशुद्ध’ का अर्थ ‘ग़लत’ नहीं है अपितु मन्त्र के साथ ब्राह्मणअंश के मिश्रण से है।
इसके अतिरिक्त शुक्लयजुर्वेद में केवल मन्त्र हैं, उनकी व्याख्याएँ तथा विभिन्न यज्ञों में उनके विनियोग (एप्लीकेशन) की बात नहीं बताई गई है। कृष्णयजुर्वेद में मन्त्रों के साथ उनकी व्याख्याएँ तथा आख्यान तो हैं ही, साथ ही उनके विनियोग भी बताए गए हैं।
एक और मत के अनुसार ‘कृष्णयजुर्वेद’ की शाखाओं का विस्तार प्रायः दक्षिण भारत में तथा ‘शुक्लयजुर्वेद’ का उत्तर भारत में है।
शुक्लयजुर्वेद की विषयवस्तु–शुक्लयजुर्वेद का एक नाम वाजसनेयी संहिता भी है क्योंकि याज्ञवल्क्य वाजस़नेयी इसके प्रथम आचार्य थे। इसकी कण्व तथा ‘माध्यन्दिन’ दो शाखाएँ हैं। सामान्य रूप से जब भी यजुर्वेद का उल्लेख होता है इसी वेद से अभिप्राय होता है। शुक्लयजुर्वेद में चालीस अध्याय हैं तथा 2086 मन्त्र हैं।
पहले तीन अध्यायों में दर्श (अमावस्या) और पूर्णमास तथा अग्निहोत्र और चातुर्मास्य से सम्बद्ध मन्त्र हैं। चतुर्थ से दशम अध्यायपर्यन्त अध्यायों में सोमयाग, वाजपेय तथा राजसूय नामक यज्ञों के मंत्र संगृहीत हैं। एकादश से अष्टादश अध्याय तक के मन्त्रों का विषय अग्निचयन है। उन्नीस से इक्कीस अध्याय तक सौत्रामणी यज्ञ के मन्त्र हैं। इस यज्ञ में अश्विनौ, सरस्वती तथा इन्द्र को पवित्र मन्त्र संकलित हैं। छब्बीस से उनतीस अध्यायों में विभिन्न यज्ञों के पूरक मन्त्र संकलित हैं। तीसवें अध्याय का विषय पुरुषमेध है। सर्वमेध यज्ञ के मन्त्र अगले तीन अध्यायों में संकलित हैं। चौंतीसवें में शिवसंकल्प के प्रसिद्ध मन्त्र हैं। अगले अध्याय में पितृमेध तथा छत्तीस से अड़तीस तक प्रवर्ग्य यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्र संगृहीत हैं। अन्तिम अध्याय प्रसिद्ध ईशोपनिषद्र है।
इन चालीस अध्यायों में से पहले पच्चीस अध्याय को ही यजुर्वेद का मौलिक अंश माना जाता है। परम्परा के अनुसार 26-35 तक के अध्याय खिल अथवा प्रक्षिप्त हैं। भाषा और विषयवस्तु के आधार पर पाश्चात्य विद्वान् पहले 18 को ही मौलिक मानते हैं।
यजुर्वेद को मुख्यरूप से कर्मकाण्डपरक माना जाता है। ‘कर्म’ यहाँ ‘यज्ञ का पर्याय ही है। भले ही यह वेद ‘यज्ञुपरक’ है परन्तु प्रसग्ङानुसार अन्य-अन्य विषयों का समावेश भी यहाँ हुआ है। मनोविज्ञान, दर्शन, अध्यात्म तथा पर्यावर्ण सम्बन्धी प्रभूत सामग्री यहाँ उपलब्ध है।
16वें अध्याय में शतरुद्रीयहोम के प्रसंग में रुद्र की कल्पना तथा अवधारणा विवेचित हुई है। तत्त्कालीन व्यवसाय, पेशे तथा कलाकौशल आदि का परिचय 30वें अध्याय से मिलता है। पुरुषसूक्त तथा हिरण्यगर्भसूक्त के मन्त्र उल्लिखित हुए हैं। ‘शिवसंकल्प-सूत्र’ में मनोवैज्ञानिक तथ्यों का उदघाटन हुआ है। अन्तिम अध्याय तो ईशोपनिषद्र ही है जहाँ दार्शनिक भावों को अभिव्यक्ति दी गई है।
यजुर्वेद का अर्थ है ‘यजुषों का वेद’–यजुष् शब्द के निम्न अर्थ हैं–वे मन्त्र जिनसे यज्ञयागादि किए जाते हैं। अनियताक्षरों से समाप्त होने वाले वाक्य को यजुः कहते हैं। गद्यात्मक मन्त्रों का नाम ‘यजुः’ होता है। जहाँ तक शुक्ल-यजुर्वेद का प्रश्न है वहाँ छन्दों का निर्देश सिद्ध करता है कि यह वेद छन्दात्मक है। कृष्णयजुर्वेद अवश्य ही गद्यात्मक है।
यजुर्वेद की शाखाएँ–महाभाष्यकार पतञ्जलि ने यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाओं का उल्लेख किया है। इनमें से आज मात्र 6 शाखाएँ उपलब्ध हैं। यज़ुर्वेद के दो मुख्य भेद हैं–शुक्लयजुर्वेद तथा कृष्णयजुर्वेद। शुक्लयजुर्वेद की दो शाखाएँ माध्यान्दिन तथा काण्व हैं और कृष्णयजुर्वेद की चार शाखाएँ हैं–तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक तथा कपिष्ठलकठ।
शुक्लयजुर्वेद तथा कृष्णयजुर्वेद में भेद–शुक्ल और कृष्ण का भेद इन दोनों के स्वरूप पर आधारित है। इस वेद के दो सम्प्रदाय हैं–ब्रह्म और आदित्य। ब्रह्मसम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व कृष्णयजुर्वेद करता है तथा आदित्यसम्प्रदाय का शुक्लयजुर्वेद। इन दोनों का भेद इनकी विषयवस्तु से होता है। शुक्ल का अर्थ होता है श्वेत या शुद्ध। इसका शुक्लत्व इस बात में है कि इसमें केवल मन्त्रों का संग्रह है। दूसरी ओर, कृष्ण का अर्थ होता है काला या ‘अशुद्ध’। यहाँ ‘अशुद्ध’ का अर्थ ‘ग़लत’ नहीं है अपितु मन्त्र के साथ ब्राह्मणअंश के मिश्रण से है।
इसके अतिरिक्त शुक्लयजुर्वेद में केवल मन्त्र हैं, उनकी व्याख्याएँ तथा विभिन्न यज्ञों में उनके विनियोग (एप्लीकेशन) की बात नहीं बताई गई है। कृष्णयजुर्वेद में मन्त्रों के साथ उनकी व्याख्याएँ तथा आख्यान तो हैं ही, साथ ही उनके विनियोग भी बताए गए हैं।
एक और मत के अनुसार ‘कृष्णयजुर्वेद’ की शाखाओं का विस्तार प्रायः दक्षिण भारत में तथा ‘शुक्लयजुर्वेद’ का उत्तर भारत में है।
शुक्लयजुर्वेद की विषयवस्तु–शुक्लयजुर्वेद का एक नाम वाजसनेयी संहिता भी है क्योंकि याज्ञवल्क्य वाजस़नेयी इसके प्रथम आचार्य थे। इसकी कण्व तथा ‘माध्यन्दिन’ दो शाखाएँ हैं। सामान्य रूप से जब भी यजुर्वेद का उल्लेख होता है इसी वेद से अभिप्राय होता है। शुक्लयजुर्वेद में चालीस अध्याय हैं तथा 2086 मन्त्र हैं।
पहले तीन अध्यायों में दर्श (अमावस्या) और पूर्णमास तथा अग्निहोत्र और चातुर्मास्य से सम्बद्ध मन्त्र हैं। चतुर्थ से दशम अध्यायपर्यन्त अध्यायों में सोमयाग, वाजपेय तथा राजसूय नामक यज्ञों के मंत्र संगृहीत हैं। एकादश से अष्टादश अध्याय तक के मन्त्रों का विषय अग्निचयन है। उन्नीस से इक्कीस अध्याय तक सौत्रामणी यज्ञ के मन्त्र हैं। इस यज्ञ में अश्विनौ, सरस्वती तथा इन्द्र को पवित्र मन्त्र संकलित हैं। छब्बीस से उनतीस अध्यायों में विभिन्न यज्ञों के पूरक मन्त्र संकलित हैं। तीसवें अध्याय का विषय पुरुषमेध है। सर्वमेध यज्ञ के मन्त्र अगले तीन अध्यायों में संकलित हैं। चौंतीसवें में शिवसंकल्प के प्रसिद्ध मन्त्र हैं। अगले अध्याय में पितृमेध तथा छत्तीस से अड़तीस तक प्रवर्ग्य यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्र संगृहीत हैं। अन्तिम अध्याय प्रसिद्ध ईशोपनिषद्र है।
इन चालीस अध्यायों में से पहले पच्चीस अध्याय को ही यजुर्वेद का मौलिक अंश माना जाता है। परम्परा के अनुसार 26-35 तक के अध्याय खिल अथवा प्रक्षिप्त हैं। भाषा और विषयवस्तु के आधार पर पाश्चात्य विद्वान् पहले 18 को ही मौलिक मानते हैं।
यजुर्वेद को मुख्यरूप से कर्मकाण्डपरक माना जाता है। ‘कर्म’ यहाँ ‘यज्ञ का पर्याय ही है। भले ही यह वेद ‘यज्ञुपरक’ है परन्तु प्रसग्ङानुसार अन्य-अन्य विषयों का समावेश भी यहाँ हुआ है। मनोविज्ञान, दर्शन, अध्यात्म तथा पर्यावर्ण सम्बन्धी प्रभूत सामग्री यहाँ उपलब्ध है।
16वें अध्याय में शतरुद्रीयहोम के प्रसंग में रुद्र की कल्पना तथा अवधारणा विवेचित हुई है। तत्त्कालीन व्यवसाय, पेशे तथा कलाकौशल आदि का परिचय 30वें अध्याय से मिलता है। पुरुषसूक्त तथा हिरण्यगर्भसूक्त के मन्त्र उल्लिखित हुए हैं। ‘शिवसंकल्प-सूत्र’ में मनोवैज्ञानिक तथ्यों का उदघाटन हुआ है। अन्तिम अध्याय तो ईशोपनिषद्र ही है जहाँ दार्शनिक भावों को अभिव्यक्ति दी गई है।
शिक्षा का सिद्धान्त
आशिक्षायै प्रश्निनमुपशिक्षाया अभिप्रश्निननं मर्यादायै प्रश्नविवाकम्।।
ऋषि :–नारायणः । देवता–विद्वान्।
छन्दः–भुरिगत्यष्टः।
शब्दार्थ : (आशिक्षायै प्रश्निनं) शिक्षा के लिए प्रश्न पूछने वाले को, (उपशिक्षाया अभिप्रश्निन) अभ्यास के लिए जिज्ञासु को तथा (मर्यादायै प्रश्नविवाकम्) नियमव्यवस्था के लिए प्रश्नसमाधानकर्त्ता को (नियुक्त करो)।
व्याख्या : सामान्यतः आचार्य या गुरु शिष्य का आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक होता है। वह अनुभवहीन की स्वयं ज्ञानार्जित करने के लिए सहायता करता है। ‘‘आचार्यदेवो भव’ कहकर इसीलिए आचार्य का सम्मान किया जाता रहा है। भारतीय संस्कृति में अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चलने वाले गुरु की महत्ता सदा से विद्यमान रही है। शिक्षा चाहे आध्यात्मिक हो या बौद्धिक–एक सुन्दर सिद्धान्त पर आधृत रही है। और वह सुन्दर सिद्धान्त है कि आचार्य या गुरु, आज की भाषा में कहें तो शिक्षक की भूमिका एक पथ-प्रदर्शक की है, गाइड की है। बाकी सब शिष्य या छात्र को स्वयं ही करना होता है। धर्म के सम्बन्ध में इसका अर्थ होगा कि हर व्यक्ति को स्वयं के लिए उन सत्यों का उदघाटन खुद करना होगा जो परमसत्य से सम्बन्द्ध हैं। या सीधे-सादे शब्दों में कहें कि ‘सत्य’ की या ‘परमसत्या’ की तलाश व्यक्ति को खुद करनी होती है। यह ‘तलाश’ प्रश्नों की अपेक्षा रखती है। यजुर्वेद का यह मन्त्रांश शिक्षा के चरम उद्देश्य को अभियञ्जित कर रहा है।
शिक्षा-शिक्षण या ज्ञान के लिए प्रश्नकर्ता को नियुक्त करना चाहिए। यह अनुभूत सत्य है कि जिस विषय को गहराई से जानना हो उसके लिए प्रश्न-प्रश्न मन में जागने चाहिए। असली शिक्षक वही जो व्यक्ति के मन में ‘प्रश्न’ जगा सके और सच्चा शिष्य या छात्र वह जो प्रश्न पूछने का साहस जुटा सके। ज्ञानार्जन की प्रथम सीढ़ी ‘प्रश्न’ ही है। प्रश्न अभ्यास के लिए भी ज़रूरी हैं। प्यारे बच्चों ! जानते हो न, तुम्हारी पाठ्यपुस्तकों में पाठ के अन्त में प्रश्न दिए रहते हैं। उनके उत्तर ढूँढ़ना, उन्हें लिखना, याद करना–यह सब शिक्षण-विधि के अन्तर्गत ही आता है। ‘अभिप्रश्निः’ का एक अर्थ है चारों ओर से प्रश्न करना। कोई भी विषय हो–उसका कोई एक बना-बनाया उत्तर नहीं होता। अनेक-अनेक आयाम होते हैं एक-एक विषय के गहराई से समझने के लिए तरह-तरह से सोचना होगा, तरह-तरह की समस्याएँ उठानी होंगी। फिर समाधान मिलेंगे। मन्त्र का अन्तिम अंश है–मर्यादा के लिए ‘प्रश्नविवाक’ होना चाहिए। मर्यादा उस व्यवस्था को कहते हैं जो मननशील मनुष्य स्वसम्मति से सबके पालन के लिए निश्चित करते हैं। मर्यादापालन एक प्रकार से आत्माशासन है। कहना न होगा शिक्षाप्राप्ति, ज्ञानार्जन या किसी भी आध्यात्मिक या वैज्ञानिक ख़ोज के लिए आत्मानुशासन की ज़रूरत होती है। आत्मानुशासन के लिए प्रश्नों का समाधानकर्ता चाहिए। प्रश्न पूछने में न संकोच करो, न उनके उत्तर ढूँढ़ने में आलस करो।
भारतीय शिक्षाव्यवस्था में छात्र की मौलिकता को प्रेरित करने के लिए ‘प्रश्न’ पूछने की स्वतन्त्रता सदा रही है। कुछ लोग भले ही मानते रहें कि शिष्य को आँख मूँदकर गुरु की बात माननी चाहिए या गुरु जो मार्ग खोजता है उसी पर चलने को शिष्य बाध्य होता है। वास्तव में गुरु का कार्य, शिक्षक की भूमिका शिष्य/छात्र में जिज्ञासा जगाने की ही है। आगे का मार्ग उसे खुद तयकरना होता है। ‘प्रश्न विवाक’ का अर्थ पंच या न्यायाधीश भी होता है। सत्य-असत्य, भले-बुरे का निर्णय जैसे पंच या न्यायाधीश करता है वैसे ही व्यक्ति को ज्ञानमार्ग पर चलते हुए प्रश्न-प्रतिप्रश्न करके अपने अनुभव में वृद्धि करनी चाहिए तथा स्वयं विवेक से भले-बुरे का निर्णय करना चाहिए।
शब्दार्थ : (आशिक्षायै प्रश्निनं) शिक्षा के लिए प्रश्न पूछने वाले को, (उपशिक्षाया अभिप्रश्निन) अभ्यास के लिए जिज्ञासु को तथा (मर्यादायै प्रश्नविवाकम्) नियमव्यवस्था के लिए प्रश्नसमाधानकर्त्ता को (नियुक्त करो)।
व्याख्या : सामान्यतः आचार्य या गुरु शिष्य का आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक होता है। वह अनुभवहीन की स्वयं ज्ञानार्जित करने के लिए सहायता करता है। ‘‘आचार्यदेवो भव’ कहकर इसीलिए आचार्य का सम्मान किया जाता रहा है। भारतीय संस्कृति में अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चलने वाले गुरु की महत्ता सदा से विद्यमान रही है। शिक्षा चाहे आध्यात्मिक हो या बौद्धिक–एक सुन्दर सिद्धान्त पर आधृत रही है। और वह सुन्दर सिद्धान्त है कि आचार्य या गुरु, आज की भाषा में कहें तो शिक्षक की भूमिका एक पथ-प्रदर्शक की है, गाइड की है। बाकी सब शिष्य या छात्र को स्वयं ही करना होता है। धर्म के सम्बन्ध में इसका अर्थ होगा कि हर व्यक्ति को स्वयं के लिए उन सत्यों का उदघाटन खुद करना होगा जो परमसत्य से सम्बन्द्ध हैं। या सीधे-सादे शब्दों में कहें कि ‘सत्य’ की या ‘परमसत्या’ की तलाश व्यक्ति को खुद करनी होती है। यह ‘तलाश’ प्रश्नों की अपेक्षा रखती है। यजुर्वेद का यह मन्त्रांश शिक्षा के चरम उद्देश्य को अभियञ्जित कर रहा है।
शिक्षा-शिक्षण या ज्ञान के लिए प्रश्नकर्ता को नियुक्त करना चाहिए। यह अनुभूत सत्य है कि जिस विषय को गहराई से जानना हो उसके लिए प्रश्न-प्रश्न मन में जागने चाहिए। असली शिक्षक वही जो व्यक्ति के मन में ‘प्रश्न’ जगा सके और सच्चा शिष्य या छात्र वह जो प्रश्न पूछने का साहस जुटा सके। ज्ञानार्जन की प्रथम सीढ़ी ‘प्रश्न’ ही है। प्रश्न अभ्यास के लिए भी ज़रूरी हैं। प्यारे बच्चों ! जानते हो न, तुम्हारी पाठ्यपुस्तकों में पाठ के अन्त में प्रश्न दिए रहते हैं। उनके उत्तर ढूँढ़ना, उन्हें लिखना, याद करना–यह सब शिक्षण-विधि के अन्तर्गत ही आता है। ‘अभिप्रश्निः’ का एक अर्थ है चारों ओर से प्रश्न करना। कोई भी विषय हो–उसका कोई एक बना-बनाया उत्तर नहीं होता। अनेक-अनेक आयाम होते हैं एक-एक विषय के गहराई से समझने के लिए तरह-तरह से सोचना होगा, तरह-तरह की समस्याएँ उठानी होंगी। फिर समाधान मिलेंगे। मन्त्र का अन्तिम अंश है–मर्यादा के लिए ‘प्रश्नविवाक’ होना चाहिए। मर्यादा उस व्यवस्था को कहते हैं जो मननशील मनुष्य स्वसम्मति से सबके पालन के लिए निश्चित करते हैं। मर्यादापालन एक प्रकार से आत्माशासन है। कहना न होगा शिक्षाप्राप्ति, ज्ञानार्जन या किसी भी आध्यात्मिक या वैज्ञानिक ख़ोज के लिए आत्मानुशासन की ज़रूरत होती है। आत्मानुशासन के लिए प्रश्नों का समाधानकर्ता चाहिए। प्रश्न पूछने में न संकोच करो, न उनके उत्तर ढूँढ़ने में आलस करो।
भारतीय शिक्षाव्यवस्था में छात्र की मौलिकता को प्रेरित करने के लिए ‘प्रश्न’ पूछने की स्वतन्त्रता सदा रही है। कुछ लोग भले ही मानते रहें कि शिष्य को आँख मूँदकर गुरु की बात माननी चाहिए या गुरु जो मार्ग खोजता है उसी पर चलने को शिष्य बाध्य होता है। वास्तव में गुरु का कार्य, शिक्षक की भूमिका शिष्य/छात्र में जिज्ञासा जगाने की ही है। आगे का मार्ग उसे खुद तयकरना होता है। ‘प्रश्न विवाक’ का अर्थ पंच या न्यायाधीश भी होता है। सत्य-असत्य, भले-बुरे का निर्णय जैसे पंच या न्यायाधीश करता है वैसे ही व्यक्ति को ज्ञानमार्ग पर चलते हुए प्रश्न-प्रतिप्रश्न करके अपने अनुभव में वृद्धि करनी चाहिए तथा स्वयं विवेक से भले-बुरे का निर्णय करना चाहिए।
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लोगों की राय
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